बढ़ने दे अभी कशमकश-ए-तार-ए-नफ़स और ऐ गोश-बर-आवाज़ ज़रा देर तरस और हम माइल-ए-परवाज़ रहे जितनी लगन से उठती ही गई उतनी ही दीवार-ए-क़फ़स और ये आतिश-ए-शौक़ और ये दो-चार फुवारें ऐ अब्र-ए-सियह-मस्त ज़रा खुल के बरस और इक क़ाफ़िला-ए-ज़ीस्त बिछड़ जाए तो क्या ग़म आती है बहुत दूर से आवाज़-ए-जरस और फ़र्दा में बहारों के निशाँ ढूँडने वालो क्या होगा ज़माने का चलन अब के बरस और हम ने जो 'तमन्नाई' बयाबान-ए-तलब में इक उम्र गुज़ारी है तो दो-चार बरस और