बढ़ते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद क़दम अज़्म-ए-सफ़र को क्या करूँ ज़ेर-ए-क़दम है कहकशाँ ज़ौक़-ए-नज़र को क्या करूँ तेज़ है कारवान-ए-वक़्त तिश्ना है जुस्तुजू अभी रोक लूँ ज़िंदगी कहाँ शाम-ओ-सहर को क्या करूँ दैर-ओ-हरम के रंग भी देख चुकी निगाह-ए-ज़ीस्त दिल में तो है वही चुभन आह-ए-सहर को क्या करूँ आज भी है वही मक़ाम आज भी लब पे उन का नाम मंज़िल बे-शुमार गाम अपने सफ़र को क्या करूँ याद किसी की आ गई हो गई धुँदली काएनात पर्दे में छुप गया कोई दीदा-ए-तर को क्या करूँ कितनी उमीदों के चराग़ राह में बुझ के रह गए अपने तो पाँव थक गए शौक़-ए-सफ़र को क्या करूँ हो गई ज़िंदगी की शाम 'सालिक'-ए-राह थक गए मंज़िलें दूर हो गईं राह-ए-गुज़र को क्या करूँ