बढ़ती जाती है ख़यालों की थकन आख़िर-ए-शब टूटने लगते हैं यादों के बदन आख़िर-ए-शब सारी दुनिया है सियाही के समुंदर की तरह छीन ली वक़्त ने एक एक किरन आख़िर-ए-शब रौशनी बन के दबे पाँव चला आता है उन दरीचों से तिरा साँवलापन आख़िर-ए-शब थक के बैठी है कहीं दूर मुसाफ़िर की तरह मेरे ख़्वाबों से मिरी सुब्ह-ए-चमन आख़िर-ए-शब हर बुन-ए-मू से छलकने लगी यादों की शराब और गुलनार हुआ तेरा बदन आख़िर-ए-शब एक इक ख़्वाब यहीं दफ़्न हुआ है 'साक़िब' देखना सोग में है अर्ज़-ए-दकन आख़िर-ए-शब