बढ़ाया हाथ मगर कुछ सिला न हाथ आया कफ़-ए-तही के सफ़र में गया न हाथ आया गिरह में खोलता कैसे ख़िरद-असीरों की कि डोर उलझी हुई थी सिरा न हाथ आया ये रस्म ख़ूब चली है मिरे ज़माने में कि हाथ लग गया अच्छा बुरा न हाथ आया लो हाथों हाथ लुटा है बहार का ख़िरमन ख़िज़ाँ तो ख़ुश हुई जैसे ख़ज़ाना हाथ आया मैं उस के सामने ख़ामोश क्या रहा कि उसे ख़िताब करने का सब से बहाना हाथ आया सराब देता हमें क्या हवस के सहरा में सिवाए मुश्त-ए-ग़ुबार-ए-हवा न हाथ आया मजाल है ये किसी की कोई बशर ये कहे ख़ुदा ख़ुदा भी किया और ख़ुदा न हाथ आया