तिलिस्म-ए-ज़ात से बाहर निकलिए नज़र के घात से बाहर निकलिए उजाले जाने कब से मुंतज़िर हैं अँधेरी रात से बाहर निकलिए तसव्वुर से फ़क़त होता नहीं कुछ हवाई बात से बाहर निकलिए हैं इंसाँ के लिए ये सम्म-ए-क़ातिल बुरी आदात से बाहर निकलिए नदी नाले सभी उमडे हुए हैं भरी बरसात से बाहर निकलिए कहीं गुम हो न जाएँ आप इस में हुजूम-ए-ज़ात से बाहर निकलिए अज़ाब-ए-जाँ है ना-कर्दा गुनाही इन इल्ज़ामात से बाहर निकलिए उसूल-ए-ज़िंदगी बदला हुआ है हसीं लम्हात से बाहर निकलिए बदल जाएँगे रोज़-ओ-शब भी 'सिद्दीक़' हिसार-ए-ज़ात से बाहर निकलिए