बढ़े चलो कि ज़माने को ये दिखाना है जहाँ हमारे क़दम हैं वहीं ज़माना है ये हुस्न-ओ-इश्क़ की तफ़रीक़ इक बहाना है कहीं नज़र को कहीं दिल को आज़माना है अब इस जुनून-ए-तलब का कोई ठिकाना है कि अपने आप को खो कर भी उन को पाना है बस एक इश्क़ ही ऐसा शराब-ख़ाना है जहाँ सुरूर का मफ़्हूम होश आना है इलाही तमकनत-ए-हुस्न-ओ-नाज़-ए-हुस्न की ख़ैर कुछ आज इश्क़ का अंदाज़ वालिहाना है मैं हर गुनाह की हक़ीक़त बता तो दूँ सर-ए-हश्र मगर उन्हें जो हर इल्ज़ाम से बचाना है ज़रा जुनून-ए-तमन्ना से दिल गुज़र जाए फिर इस के बाद कोई दाम है न दाना है मैं जानता हूँ जो है फ़र्क़-ए-ज़ात-ओ-परतव-ए-ज़ात मिरी निगाह पस-ए-पर्दा-ए-ज़माना है किसे नसीब हो सज्दा ये और बात है 'कैफ़' हर इक जबीं के क़रीब उन का आस्ताना है