बदले में दुआओं के कभी ज़र नहीं लेते एहसान किसी का भी क़लंदर नहीं लेते ख़ुद मंज़िल-ए-मक़्सूद लिपट जाती है उन से रहबर का सहारा वो कहीं पर नहीं लेते सो जाते हैं बोरे पे चटाई पे कहीं भी मुफ़्लिस तो कभी मख़मली बिस्तर नहीं लेते हो जाए जहाँ रात वहीं दिन को बसेरा बेचारे ये बंजारे कहीं घर नहीं लेते सब लूट लिया करते हैं बलवाई फ़सादी उजड़े हुए लोगों का मुक़द्दर नहीं लेते अश्कों से ही हम प्यास बुझा लेते हैं 'नाज़ाँ' ख़ुद्दार हैं कुछ ऐसे समुंदर नहीं लेते