बदली ऐसी ज़ुल्फ़ की लट में शामिल कर के उलझन कोई मेरी ख़ातिर बाल सुखाने नाप रहा है आँगन कोई तेरह चौदह की उम्रों में लाज़िम है मोहतात रहें हम क्या ऐसी फलती उम्रों को कह सकता है बचपन कोई मुस्तक़बिल में रफ़्ता-रफ़्ता घुल-मिल कर अफ़्साने होंगे अब तक चलते-फिरते जुमले वो भी रस्मन ज़िमनन कोई उस की ज़ुल्फ़ का लहरा लेना दूर से कुछ ऐसा लगता है चंदन से गोरे शाने पर जैसे काली नागन कोई फ़ैज़ान-ए-साक़ी से अन्दर आते ही तारीफ़ें रुख़्सत मयख़ाने से बाहर आ कर कोई शैख़ बरहमन कोई ख़ल्वत में भी परतव उस का उस का हाला बन जाता है बे-पर्दा मिल आने वालो बीच में होगी चिलमन कोई शे'रों में इज़हार-ए-हक़ीक़त से इग़्माज़ कहाँ मुमकिन है 'शाद' मिरे तन्ज़ों से बढ़ कर कब है मेरा दुश्मन कोई