सलीक़ा ही न आया अश्क-हा-ए-दीदा-ए-तर से बरसने की जगह ठहरे ठहरने की जगह बरसे तिरे दर तक मिरे नालों की शान-ए-ना-रसाई भी कुछ ऐसी है कि जैसे तीर टकरा जाए पत्थर से अभी हंगामा-आरा दिल में है इक इशरत-ए-रफ़्ता अभी तक तेरी ख़ुश्बू आ रही है मेरे बिस्तर से भरे घर में मिरे जोश-ए-जुनूँ से ख़ौफ़-ए-रुस्वाई मुझे इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ का खटका भरे घर से मैं फिर आग़ाज़-ए-उल्फ़त का नतीजा सोचने बैठूँ मुझे तुम गुदगुदा कर फिर निकल जाओ बराबर से मुझे तो 'शाद' के हर शे'र में ताईद मिलती है किसी रू-ए-मुनव्वर से किसी ज़ुल्फ़-ए-मोअ'म्बर से