बादशाह-ए-वक़्त कोई और कोई मजबूर क्यूँ बिन गया है इक ज़माने का यही दस्तूर क्यूँ है बक़ा के साथ तो नाम-ए-फ़ना भी लाज़मी आप इतनी बे-सबाती पर हुए मग़रूर क्यूँ धूप में पानी में सर्दी में हवा के साथ साथ जान अपनी दे रहा है आज भी मज़दूर क्यूँ ये तो दुनिया है न बदली है न बदलेगी कभी ग़ौर करने के लिए फिर आप हैं मजबूर क्यूँ अपनी शोहरत के लिए उस ने तो कुछ सोचा नहीं हो गई लेकिन 'वासिय्या' की ग़ज़ल मशहूर क्यूँ