बादशाही हो कि दरयूज़ा-गरी का मौसम भूलता ही नहीं वो हम-सफ़री का मौसम खेतियाँ छालों की होती थीं लहू उगते थे कितना ज़रख़ेज़ था वो दर-बदरी का मौसम हिर्ज़-ए-जाँ ठहरे जो सहरा में ठिकाना मिल जाए बस्तियों में तो है आशुफ़्ता-सरी का मौसम आओ ज़ख़्मों से फिर इक बार लिपट कर रो लें वर्ना आने को है अब बख़िया-गरी का मौसम रोज़-ए-अव्वल से है छाया हुआ मुझ पर अब तक किर्चियाँ होने का शक़्क़-उल-बशरी का मौसम अब कभी लौट कर आएगा न शायद 'आजिज़' डूब कर पीने का दामन की तरी का मौसम