छुट गईं नब्ज़ें रुकी साँसें नज़र पथरा गई मौत क्यूँ कहिए उसे बीमार को नींद आ गई दर-हक़ीक़त आप थे या आप का अक्स-ए-जमील वाक़ई मेरी नज़र क्या आज धोका खा गई मैं ने चाहा था कि फूलों से बसा लूँ पैरहन बू-ए-गुल भी मेरे दामन से मगर कतरा गई हम को तर्क-ए-आरज़ू का आज ये हासिल मिला आरज़ू का नाम ले कर आरज़ू शरमा गई बज उठा साज़-ए-तरब और जल उठे दिल के चराग़ इत्तिफ़ाक़न भी अगर उन से नज़र टकरा गई बन गई वज्ह-ए-फ़रोग़-ए-अंजुमन शम-ए-हयात ज़िंदगी थी आप की और आप के काम आ गई उस निगाह-ए-मुल्तफ़ित का मुझ से फिरना था 'जलील' आरज़ूओं के गुलिस्ताँ में ख़िज़ाँ सी छा गई