बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे साया-ए-शाख़-ए-गुल अफ़ई नज़र आता है मुझे जौहर-ए-तेग़ ब-सर-चश्म-ए-दीगर मालूम हूँ मैं वो सब्ज़ा कि ज़हराब उगाता है मुझे मुद्दआ महव-ए-तमाशा-ए-शिकस्त-ए-दिल है आइना-ख़ाना में कोई लिए जाता है मुझे नाला सरमाया-ए-यक-आलम ओ आलम कफ़-ए-ख़ाक आसमाँ बैज़ा-ए-क़ुमरी नज़र आता है मुझे ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे देखूँ अब मर गए पर कौन उठाता है मुझे बाग़ तुझ बिन गुल-ए-नर्गिस से डराता है मुझे चाहूँ गर सैर-ए-चमन आँख दिखाता है मुझे शोर-ए-तिम्साल है किस रश्क-ए-चमन का या रब आइना बैज़ा-ए-बुलबुल नज़र आता है मुझे हैरत-ए-आइना अंजाम-ए-जुनूँ हूँ ज्यूँ शम्अ किस क़दर दाग़-ए-जिगर शोला उठाता है मुझे मैं हूँ और हैरत-ए-जावेद मगर ज़ौक़-ए-ख़याल ब-फ़ुसून-ए-निगह-ए-नाज़ सताता है मुझे हैरत-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न साज़-ए-सलामत है 'असद' दिल पस-ए-ज़ानू-ए-आईना बिठाता है मुझे