बग़ैर नक़्द-ए-वफ़ा ज़िंदगी की क़ीमत क्या अगर ख़ुलूस नहीं है तो फिर मोहब्बत क्या ज़बाँ पे प्यार की बातें हैं दिल में कुछ भी नहीं अगर यही है मोहब्बत तो फिर मोहब्बत क्या बस इक निगाह-ए-नवाज़िश ही तेरी काफ़ी है कुछ और माँगने की अब हमें ज़रूरत क्या ख़ुलूस होगा तो फिर बात असर करेगी ज़रूर जो ज़िंदगी न बदल दे तो फिर नसीहत क्या ये सब करम ही करम है करम के जल्वे हैं जो तू न चाहे तो हम क्या हमारी शोहरत क्या कुछ आप अपनी कहें और कुछ हमारी सुनें जनाब इतने तकल्लुफ़ की अब ज़रूरत क्या मिला है ज़र तो ग़रीबों के काम भी आओ न जिस से ख़िदमत-ए-मख़्लूक़ हो वो दौलत क्या हम अपने दौर की हैं जिंस-ए-बे-बहा लोगो लगा सकेगा ज़माना हमारी क़ीमत क्या कोई नहीं किसी गिरते को थामने वाला इसी का नाम है इस दौर में उख़ुव्वत क्या जो एक लम्हे में दुनिया ही छोड़ दे 'शाकिर' उस आदमी की जो सच पूछिए तो क़ीमत क्या