बग़ैर तेरे हों माह-ओ-अंजुम कि शीशा-ओ-जाम बुझ गए हैं जले थे कितने चराग़ लेकिन सभी सर-ए-शाम बुझ गए हैं वही है क़ानून-ए-जुर्म-ए-उल्फ़त दिलों पे क़ैदें लबों पे पहरे दिलों के नग़्मात रुक गए हैं लबों के पैग़ाम बुझ गए हैं न उस के रुख़्सार की शफ़क़ है न आरज़ू की कोई किरन है सहर ये कैसी सहर है यारो कि सब दर-ओ-बाम बुझ गए हैं हुआ है वीरान शहर-ए-दिल यूँ कि जैसे वीराँ हुआ हो मंदिर कोई सनम-ख़ाना लुट गया है कि रू-ए-असनाम बुझ गए हैं हैं दश्त-ए-ग़ुर्बत में पा-बरहना न जाने कितने ही 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' उदास मय-ख़ानों की फ़ज़ाओं में कितने ख़य्याम बुझ गए हैं 'पयाम' मक़्तूल आरज़ूओं का इक जनाज़ा है ज़िंदगी भी थी जिस से हर अंजुमन चराग़ाँ वो दिल तह-ए-दाम बुझ गए हैं