बगूला बन के नाचता हुआ ये तन गुज़र गया हवा में देर तक उड़ा ग़ुबार और बिखर गया हमारी मिट्टी जाने कौन ज़र्रा ज़र्रा कर गया बग़ैर शक्ल ये वजूद चाक पर बिखर गया ये रूह हसरत-ए-वजूद की बक़ा का नाम है बदन न हो सका जो ख़्वाब रूह में ठहर गया अजब सी कशमकश तमाम उम्र साथ साथ थी रखा जो रूह का भरम तो जिस्म मेरा मर गया हर एक राह उस के वास्ते थी बे-क़रार और मुसाफ़िर अपनी धुन में मंज़िलों से भी गुज़र गया उड़ा दी राख जिस्म की ख़ला में दूर दूर जब 'अलीना' आसमानी नूर रूह में उतर गया