गर्दिश-ए-मय का इस पर न होगा असर मस्त आँखों का जादू जिसे याद है वह नसीम-ए-गुलिस्ताँ से बहलेगा क्या तेरे आँचल की ख़ुशबू जिसे याद है तिश्नगी की वो शिद्दत को भूलेगा क्या धूप की वो तमाज़त को भूलेगा क्या तेरी बे-फ़ैज़ आँखें जिसे याद हैं तेरा बे-साया गेसू जिसे याद है कोई मुम्ताज़ है और न शाह-ए-जहाँ सोज़ और साज़ है कुछ अलग ही यहाँ ताज-महलों के वो ख़्वाब देखेगा क्या संग-ए-मरमर का ज़ानू जिसे याद है उस को दुख-दर्द कोई छलेगा नहीं उस की दुनिया का सूरज ढलेगा नहीं तेरे बचपन की ख़ुशियाँ जिसे याद हैं तेरे दामन का जुगनू जिसे याद है ऐ 'अलीम' आफ़तों के ये लश्कर हैं क्या एक महशर नहीं लाख महशर हैं क्या उस को फ़ित्नों की परवाह बिल्कुल नहीं तिरा इक एक घुंघरू जिसे याद है