बहार थी न चमन था न आशियाना था अजीब रंग में गुज़रा हुआ ज़माना था ब-फ़ैज़-ए-ख़ून-ए-जिगर अब वो हो रहा है चमन कभी जो मेरे मुक़द्दर से क़ैद-ख़ाना था हुदूद-ए-कौन-ओ-मकाँ में भी जो समा न सका मिरी हयात का वो मुख़्तसर फ़साना था नज़र में दैर-ओ-हरम थे कि मैं समझ न सका जहाँ झुकी थी जबीं उन का आस्ताना था बस इतना याद है मुझ को कि बर्क़ चमकी थी फिर उस के बाद चमन था न आशियाना था फ़रेब-ए-हुस्न में आए तो ये हुआ मालूम जहाँ में एक यही ज़ीस्त का बहाना था जुनून-ए-शौक़ का इक ये भी मो'जिज़ा है 'नज़ीर' वही है आज हक़ीक़त जो कल फ़साना था