बहार है तिरे आरिज़ से लौ लगाए हुए चराग़ लाला-ओ-गुल के हैं झिलमिलाए हुए तिरा ख़याल भी तेरी ही तरह आता है हज़ार चश्मक-ए-बर्क़-ओ-शरर छुपाए हुए लहू को पिघली हुई आग क्या बनाएँगे जो नग़्मे आँच में दिल की नहीं तपाए हुए ज़रा चले चलो दम भर को दिन बहुत बीते बहार-ए-सुब्ह-ए-चमन को दुल्हन बनाए हुए क़दीम से है यही रस्म-ओ-राह-ए-मुल्क-ए-वफ़ा कि आज़माए गए जो थे आज़माए हुए ढिटाई देखी थी उस से लड़ाते हैं आँखें सितारे आँखों की तेरी झपक चुराए हुए है जा-ए-हुस्न हया और भी इज़ाफ़ा कर नज़र के सामने आ जा नज़र झुकाए हुए जो मुंतज़िर थे किसी के वो सो गए आख़िर सिसकती आरज़ूओं को गले लगाए हुए अब इस के बाद गिला किस से कीजिए किस का समझते थे जिन्हें अपना वही पराए हुए हम अपने हाल-ए-परेशाँ पे मुस्कुराए थे ज़माना हो गया यूँ भी तो मुस्कुराए हुए हमेशा कैफ़ से ख़ाली रहेंगे वो नग़्मे जो तेरी निकहत-ए-ख़ुश में नहीं बसाए हुए 'असर' सुनाती हैं अब दिल की धड़कनें शब को फ़साने उस निगह-ए-मस्त के सुनाए हुए