बहार आई है आलम में अजब वहशत का सामाँ है

बहार आई है आलम में अजब वहशत का सामाँ है
बयाबाँ में कभी घर है कभी घर में बयाबाँ है

मिरी पाबंदियाँ ही जब मिरी आज़ादियाँ ठहरीं
तो गुलशन हो कि सहरा सब मिरी नज़रों में ज़िंदाँ है

हर इक सरमस्त-ए-इरफ़ाँ है मगर है फ़र्क़ बस इतना
कहीं दरिया में क़तरा है कहीं क़तरे में तूफ़ाँ है

चमन में फूल हैं फूलों पे कुछ बिखरे हुए तिनके
मिरा उजड़ा नशेमन भी गुलिस्ताँ-दर-गुलिस्ताँ है

समझ में कुछ नहीं आता दुआ किस चीज़ की माँगूँ
कभी जीने की ख़्वाहिश है कभी मरने का अरमाँ है

कहाँ का क़िस्सा है आख़िर ये दिल में क्या समाई है
पलट जाओ पलट जाओ इधर गोर-ए-ग़रीबाँ है

न छोड़ा फ़र्क़ कुछ वहशत ने मेरे जेब-ओ-दामाँ में
गरेबाँ है जो दामन है जो दामन है गरेबाँ है

रुकी है लब पे जाँ आकर पे अब तो मौत भी 'आली'
अजब कुछ कश्मकश में है न मुश्किल है न आसाँ है


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