बहार आई ज़माना हुआ ख़राबाती हमारे दिल में भी इक लहर काश आ जाती हवा भी सर्द है भीगी है रात भी लेकिन सुलग रही है किसी आग से मिरी छाती मिरे पड़ोस में ये ज़िक्र है कई दिन से सदा जो आती थी रोने की अब नहीं आती लगा के सीने से शादाबियों को सो जाता मुझे बहार-ए-जवानी में मौत आ जाती बजा रहा है कोई रात में सितार 'अख़्तर' धड़क रही है मिरी आरज़ूओं की छाती