बाहर तो ख़ुश-गवार दिसम्बर की धूप है हम जिस में जल रहे हैं वो अंदर की धूप है क्या धूप के ग़ज़ब से डराओगे तुम मुझे हर चिलचिलाती धूप मिरे घर की धूप है इस से तो ज़ुल्फ़ भी न बचा पाएगी तिरी ऐ मेहरबाँ ये मेरे मुक़द्दर की धूप है गिरती है मुझ पे आ के किसी तेग़ की तरह ख़ुद को बचा के रख ये मिरे सर की धूप है तेरी हसीन शाम को झुलसा न दे कहीं मुझ बे-नवा के साथ जो दिन भर की धूप है मायूस लौट जाएगी 'दरवेश' की तरह कमरे में झाँकती हुई बाहर की धूप है