अजीब सदी थी कि ज़ेर-ओ-ज़बर जहान हुआ नज़र के सामने मंज़र लहूलुहान हुआ बहुत थीं जिस की मुसाफ़िर-नवाज़ियाँ मशहूर वो मेरा शहर मिरे हक़ में बे-अमान हुआ हर औज देखते ही देखते हुई पस्ती हर एक ज़र्रा-ए-नाचीज़ आसमान हुआ जो चलते वक़्त था पैरों के वास्ते चट्टान पलटते वक़्त वही रास्ता ढलान हुआ तमाम उम्र लुटाया ख़ुलूस-ए-दिल जिस पर नसीब है कि वही शख़्स बद-गुमान हुआ अजीब अह्द में पाई थी ज़िंदगी मैं ने हर एक ज़ुल्म मिरे सामने जवान हुआ किया गया मुझे 'दरवेश' इस तरह तक़्सीम न एक जिस्म हुआ फिर न एक जान हुआ