बहार-ए-गुलशन-ए-हस्ती है क़ाएम शादी-ओ-ग़म से जो गुल ख़ंदाँ है गुलशन में तो गिर्यां शम-ए-महफ़िल में जहाँ माशूक़ हो आशिक़ वहीं उस का पहुँचता है चमन में जाए परवाना न बुलबुल आए महफ़िल में 'निहाल' उस के करम से पार बेड़ा होगा तेरा भी बचाया नूह को तूफ़ाँ से जिस ने ऐन मुश्किल में