दिल से जिस को चाहता हूँ क्यूँ उसे रुस्वा करूँ ये मिरा शेवा नहीं मैं इश्क़ का चर्चा करूँ एहतियातन इस लिए तन्हा रहा करता हूँ मैं याद वो आ जाए तो जी खोल कर रोया करूँ ख़त मिरा पढ़ कर सितमगर क्यूँ न होगा अश्क-बार आह का ले कर क़लम जब दर्द को इंशा करूँ तू चले हमराह तो रस्ता दिखाई दे मुझे क्यूँ अबस परछाइयों के ग़ूल का पीछा करूँ दिल में इक मासूम सी ये आरज़ू भी है 'सहर' वो मुख़ातब मुझ से हो और मैं उसे देखा करूँ