बह्र-ए-इरफ़ाँ से तो ख़ुश-फ़िक्र शनावर उभरे अहल-ए-ज़र डूब गए और क़लंदर उभरे लाइक़-ए-दीद है फ़नकार के चेहरे का जमाल शाख़-ए-अफ़्कार से जब कोई गुल-ए-तर उभरे मंज़िलें उन के क़दम चूमने आएँ अक्सर जिन की रफ़्तार से हर-गाम पे महशर उभरे दिल-नवाज़ी ने तिरी ऐसा सहारा बख़्शा सतह-ए-एहसास पे मंज़र पस-ए-मंज़र उभरे ज़िंदगी मौज-ए-हवादिस से उलझती ही रही बहर-ए-आलाम में हम डूब के अक्सर उभरे राह-ए-मसदूद पे इक ना'रा-ए-मस्ताना 'ज़िया' ताकि इस गुम्बद-ए-बे-दर से कोई दर उभरे