बहर-ए-उल्फ़त का कहीं कोई किनारा ही नहीं दश्त-ए-फ़ुर्क़त का दिल-अफ़रोज़ नज़ारा ही नहीं अब न तड़पाओ मुझे चारागरी की ख़ातिर आ भी जाओ कि मुझे ज़ब्त का यारा ही नहीं मैं ने पैमान-ए-वफ़ा बाँध लिया है उस से जिस को इक लम्हा मिरा साथ गवारा ही नहीं मिलते ही फेर लीं इस तरह निगाहें सब ने ऐसा लगता है कोई उन में हमारा ही नहीं अपनी आशुफ़्ता-सरी का जो मुदावा करता अस्र-ए-हाज़िर में कोई ऐसा सहारा ही नहीं ऐसा क्या था कि पयम्बर उसे कहती दुनिया दस्त-ए-मानी ने कोई नक़्श उभारा ही नहीं हम ने 'बिस्मिल' ग़म-ओ-आलाम से बै'अत कर ली मा-सिवा इन के किसी को भी पुकारा ही नहीं