बे-हिसी रहती है जब मद्द-ए-मुक़ाबिल तन्हा ज़िंदगी ढूँढती रह जाती है मंज़िल तन्हा सब ने तो बाँट ली है सुब्ह-ए-मसर्रत मिल कर तय किए हम ने शब-ए-ग़म के मराहिल तन्हा याद आ जाती है उस वक़्त दबे पाँव तिरी जब कभी रहती है ये बारगह-ए-दिल तन्हा ख़ौफ़-ए-गिर्दाब-ए-तलातुम था जिन्हें भाग गए बस खड़ा रह गया मैं ही सर-ए-साहिल तन्हा और बढ़ जाती है ये कशमकश-ए-दिल 'बिस्मिल' जब भी जाता हूँ सू-ए-कूचा-ए-क़ातिल तन्हा