बहुत अज़ीज़ था आलम वो दिल-फ़िगारी का सुकूँ ने छीन लिया लुत्फ़ बे-क़रारी का हमें भी ख़ू थी ज़मानों से दिल जलाने की उन्हें भी शौक़ पुराना था शोला-बारी का दिलों में उन के रहा इज़्तिराब रोज़-ओ-शब वो जिन के सर पे रहा बोझ ताज-दारी का वो जाते जाते मुझे अपने ग़म भी सौंप गया अजीब ढंग निकाला है ग़म-गुसारी का कहा था तुम से ऐ 'आज़िम' सँभल सँभल के चलो भरम न रक्खा मगर तुम ने पर्दा-दारी का