बहुत दुश्वार है तस्कीन-ए-ज़ौक़-ए-रंग-ओ-बू करना जो चुन सकते हो काँटे तो गुलों की आरज़ू करना जिहाद-ए-ज़िंदगी में हो जो ख़ुद को सुर्ख़-रू करना जिगर को ख़ाक करना और कभी दिल को लहू करना किसी को देखने की ख़्वाब में जब आरज़ू करना नज़र को अश्क-ए-ख़ून-ए-दिल से पहले बा-वज़ू करना ख़िरद का दीजिए नाम उस को या दीवानगी कहिए गरेबाँ चाक करना और दामन को रफ़ू करना बग़ैर-ए-ख़ू-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा जीना कुछ ऐसा है कि शुग़्ल-ए-बादा-नोशी जैसे बे-जाम-ओ-सुबू करना लगे क्यूँ कर जबीं पर अपनी दाग़-ए-मिन्नत-ए-क़ातिल मुझे आता है शमशीर-ए-सितम ज़ेब-ए-गुलू करना सर-ए-मिज़्गाँ छलक कर आँसूओं ने दस्त-गीरी की कहाँ मुमकिन था वर्ना शरह-ए-हर्फ़-ए-आरज़ू करना ये आलम है कि बार-ए-ख़ातिर-ए-सय्याद है 'अतहर' दर-ओ-दीवार-ए-ज़िंदाँ से भी मेरा गुफ़्तुगू करना