बहुत है अब मिरी आँखों का आसमाँ उस को गया वो दौर कि थी फ़िक्र-ए-आशियाँ उस को किया है सल्तनत-ए-दिल पे हुक्मराँ उस को नवाज़िशों का सलीक़ा मगर कहाँ उस को शिगाफ़-ए-ज़ख़्म जो मेरा न खुल गया होता तो कैसे मिलती ये शमशीर-ए-कहकशाँ उस को जिधर भी जाता है वो शोला-ए-बहार-सरिश्त दुआएँ देता है अम्बोह-ए-कुश्तगाँ उस को ख़ुद उस की अपनी चमक ने सुराग़ उस का दिया छुपाया मैं ने बहुत ज़ेर-ए-आब-ए-जाँ उस को समुंदर अपना सा मुँह ले के रह गए 'इशरत' किया तरावश-ए-शबनम ने बे-कराँ उस को