चारों तरफ़ ख़ला में है गहरा ग़ुबार सा फिर भी कहीं पे है यूँही कुछ आश्कार सा क्या फूटता है दिल की ज़मीं से ब-रंग-ए-ग़म क्या तैरता है आँख में नक़्श-ए-बहार सा बिखरे हैं मेरे गिर्द निशान-ए-क़दम मिरे खींचा है मैं ने अपने लिए भी हिसार सा फ़ुर्सत जो हो तो खुल के बरस मेरी ख़ाक पर बन जाऊँ मैं भी एक शजर साया-दार सा तन्हा दरख़्त मैं भी हूँ उस के कनार में वो भी मिरे क़रीब है इक जूएबार सा 'इशरत' उदास ताक़ पे ये ज़र्द-रू चराग़ तन्हाइयों में मेरी है इक ग़म-गुसार सा