बहुत हसीन बड़ी पुर-बहार गुज़री है वो ज़िंदगी जो सर-ए-कू-ए-यार गुज़री है वही कि जो थी सर-ए-बज़्म ग़ैर की जानिब वही निगाह मिरे दिल के पार गुज़री है नया शगूफ़ा है खिलने को फिर कोई शायद चमन से बाद-ए-सबा सोगवार गुज़री है ये और बात है वो सह गया उसे वर्ना दिल-ए-हज़ीं पे ख़राबी हज़ार गुज़री है न राज़ पा सकी फिर भी ग़म-ए-मोहब्बत का रह-ए-जुनूँ से ख़िरद बार बार गुज़री है उसी में उन की ख़ुशी का था राज़ पोशीदा जो बात मुझ को बहुत नागवार गुज़री है कुछ ऐसा रंग जमाया ख़िज़ाँ ने गुलशन में कि डरती काँपती फ़स्ल-ए-बहार गुज़री है समझ सकेगा वही मेरे ग़म को ऐ 'साहिर' कि जिस की ज़िंदगी बे-इख़्तियार गुज़री है