बहुत ख़ामोश रह कर जो सदाएँ मुझ को देता था बड़े सुंदर से जज़्बों की क़बाएँ मुझ को देता था कभी जो दर्द की आतिश मुझे सुलगाने लगती थी वो अपने साँस की महकी हवाएँ मुझ को देता था वो उस की चाहतें भी तो ज़माने से अनोखी थीं रियाज़त ख़ुद वो करता था जज़ाएँ मुझ को देता था मिरे एहसास के सहराओं में जो धूप बढ़ती थी वो मौसम का ख़ुदा बन कर घटाएँ मुझ को देता था उसे मैं अजनबी समझा मगर हर मोड़ पर 'आशिर' वो अपने नाम की सारी दुआएँ मुझ को देता था