बहुत निढाल बहुत बद-हवास लगती है ये भीड़ शहर की कितनी उदास लगती है तलाश-ए-आब मैं मक़्सद न फ़ौत हो जाए सफ़र हो सख़्त तो रुक रुक के प्यास लगती है वो जिस से हम ने हमेशा ही दूरियाँ रक्खीं अब उस की बात में मुझ को मिठास लगती है तुम्हारे गाँव के पीपल के इस चबूतरे से हवा की आँख बहुत रू-शनास लगती है ज़माना हो गया उस से मिला नहीं हूँ मैं वो अब भी मुझ को मगर आस-पास लगती है