बहुत रुस्वा क्या इस आशिक़ी ने हर गली मुझ को लिए फिरती रही हर जा ये मेरी बेकसी मुझ को छुपाए से नहीं छुपती हक़ीक़त खुल ही जाती है सर-ए-बाज़ार ले आई मिरी दीवानगी मुझ को ख़बर क्या थी यही इक दिन क़यामत मुझ पे ढाएगी पसंद आई थी बचपन में तिरी ये सादगी मुझ को निगाह-ए-नाज़ ने उन की मुझे इक अरमुग़ाँ बख़्शा मिला दरबार-ए-उल्फ़त से शुऊर-ए-ज़िंदगी मुझ को दिल-ओ-जान-ओ-जिगर क़ुर्बान मैं ने कर दिए सारे रुलाती ही रही अक्सर तिरी बेगानगी मुझ को 'जलाली' जादा-ए-उलफ़त में जब से है क़दम रक्खा रही उन के तसव्वुर में हमेशा बेकली मुझ को