जब कभी यादों का दरवाज़ा खुला आख़िर-ए-शब कोई दर आया ब-अंदाज़-ए-हवा आख़िर-ए-शब हम पशेमान इधर और उधर वो नादिम शाम का भूला हुआ आ ही गया आख़िर-ए-शब दिल के आँगन में ब-सद नाज़ था वो महव-ए-ख़िराम फूल ही फूल था नक़्श-ए-कफ़-ए-पा आख़िर-ए-शब कर सका पेश न उर्यानी का जब कोई जवाज़ आ गया ओढ़ के मरियम की रिदा आख़िर-ए-शब साँवली शाम की ज़ुल्फ़ों के परस्तार तमाम हो गए आप ही मसरूफ़-ए-दुआ आख़िर-ए-शब नींद आ ही गई वामाँदा थे आ'साब तमाम ठंडी ठंडी जो चली मौज-ए-सबा आख़िर-ए-शब वो कसक मुर्ग़-ए-सहर की थी नवा में 'रौनक़' दिल पे इक नश्तर-ए-एहसास लगा आख़िर-ए-शब