बहुत से ज़ख़्म जिन को मुस्तक़िल मेहमान रक्खा है बदन की क़ैद में कुछ दर्द का सामान रक्खा है कभी लगता है कि मैं आसमाँ को छू के आई हूँ कभी लगता है रस्ते में कोई तूफ़ान रखा है हर इक लम्हा गुमाँ की दस्तरस में क्या बताएँ हम कहाँ उम्मीद रक्खी है कहाँ ईमान रक्खा है तुम्हारी आँख में ठहरा हुआ पानी बताता है मोहब्बत की थी तुम ने और उस का मान रक्खा है मिरे आबा के घर को बेच कर मुझ से वो कहता है वहीं कमरा पड़ा है और वहीं दालान रक्खा है हमारी हिम्मतों की दाद दे कर लौट जाएगा हमारे सामने जिस ग़म ने सीना तान रक्खा है