बजा है हम ज़रूरत से ज़ियादा चाहते हैं मगर ये देख सब कुछ बे-इरादा चाहते हैं बहुत दिल-तंग हैं गुंजाइश-ए-मौजूद से हम रह-ए-इम्काँ कुशादा से कुशादा चाहते हैं पुरानी है नुमू-आसार है फिर भी ये मिट्टी बदन से और अभी कुछ इस्तिफ़ादा चाहते हैं सवार आते नहीं हैं लौट कर जिन घाटियों से सफ़र इस खूँट का इक पा-प्यादा चाहते हैं बहुत बे-ज़ार हैं अशरफ़िया की रहबरी से कोई इंसान कोई ख़ाक-ज़ादा चाहते हैं कोई इज़हार आमादा है दिल की धड़कनों में हम उस के वास्ते इक लहन-ए-सादा चाहते हैं जो हो मक़्बूल उस की बारगाह-ए-हक़-अदा में वो इक लम्हा 'रियाज़' आधे से आधा चाहते हैं