गुज़र कर आदमी राह-मुसीबत से सँवरता है क़मर का नूर शब की ज़ुल्मतों में ही निखरता है ब-जुज़ दर्द-ए-हयात-ए-ग़म नहीं मिलता कहीं कुछ भी बशर दुनिया-ए-फ़ानी में जहाँ से भी गुज़रता है गुलों की पत्तियाँ जैसे गुलों से रूठ जाती हैं दम-ए-तन्हाई-ए-ग़म कुछ मिरा दिल यूँ बिखरता है ब-सूरत क़तरा-ए-शबनम हूँ मैं ख़ार-ए-गुलिस्ताँ पर मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ से भी डरता है ये देखा है नहीं बे-फ़ैज़ आमद अब्र-ए-नैसाँ की कोई अंजाम होता है बशर जो कुछ भी करता है फ़रिश्तों का गुज़र जिन मंज़िलों से ग़ैर-मुमकिन है बशर की अज़्मतें देखो वहाँ से भी गुज़रता है निकोहिश नाख़ुन-ए-नादाँ पे क़ाबू पा ही जाती है बड़ा परहेज़ करते हैं कहीं तब ज़ख़्म भरता है सँभल ऐ फ़िरक़ा-ए-उश्शाक़ अब फिर इम्तिहाँ होगा सर-ए-चिलमन किसी काफ़िर का फिर गेसू सँवरता है उलझते हैं तिरे कूचे में जो मुर्ग़-ए-चमन के पैर दम-ए-परवाज़ गुलशन से किसी का दिल भी भरता है फ़ना करता है पहले ज़िंदगी की हर तमन्ना को कहीं तब जा के इंसाँ पस्ती-ए-ग़म से उभरता है इसी बाइ'स वुफ़ूर-ए-ग़म में अक्सर 'नाज़' हँसते हैं मुसीबत और बढ़ती है जो ग़म से जितना डरता है