बजा कि हर कोई अपनी ही अहमियत चाहे मगर वो शख़्स तो हम से मुसाहिबत चाहे गुज़र रहे हैं अजब जाँ-कनी में रोज़-ओ-शब कि रूह क़र्या-ए-तन से मुहाजरत चाहे कमाँ में तीर चढ़ा हो तो बे-अमाँ ताइर सलामती को कोई कुंज-ए-आफ़ियत चाहे निकल पड़े हैं घरों से तो सोचना कैसा अब आए रह में अज़ाबों की सल्तनत चाहे अना के हाथों हुआ है 'शफ़ीक़' जो भी हुआ मगर ये दिल कि अभी तक मुफ़ाहमत चाहे