बज़्म से जब निगार उठता है मेरे दिल से ग़ुबार उठता है मैं जो बैठा हूँ तो वो ख़ुश-क़ामत देख लो बार बार उठता है तेरी सूरत को देख कर मिरी जाँ ख़ुद-बख़ुद दिल में प्यार उठता है उस की गुल-गश्त से रविश-ब-रविश रंग ही रंग यार उठता है तेरे जाते ही इस ख़राबे से शोर-ए-गिर्या हज़ार उठता है कौन है जिस को जाँ अज़ीज़ नहीं ले तिरा जाँ-निसार उठता है सफ़-ब-सफ़ आ खड़े हुए हैं ग़ज़ाल दश्त से ख़ाकसार उठता है है ये तेशा कि एक शो'ला सा बर-सर-ए-कोहसार उठता है कर्ब-ए-तन्हाई है वो शय कि ख़ुदा आदमी को पुकार उठता है तू ने फिर कस्ब-ए-ज़र का ज़िक्र किया कहीं हम से ये बार उठता है लो वो मजबूर शहर-ए-सहरा से आज दीवाना-वार उठता है अपने याँ तो ज़माने वालों का रोज़ ही ए'तिबार उठता है 'जौन' उठता है यूँ कहो या'नी 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' का यार उठता है