बक़ा की चाह में तू देख बे-मकान न हो ज़मीन तेरी हक़ीक़त है आसमान न हो रह-ए-नजात में मंज़िल की जुस्तुजू किस को ये वो सफ़र है कि जिस में कभी थकान न हो यहाँ सभी की रसाई तो ग़ैर मुमकिन है ये तजरबात की महफ़िल है बद-गुमान न हो रहो ख़िलाफ़ तो दुनिया से वास्ता न रहे मिलो तो ऐसे कि फिर कोई दरमियान न हो तुम्हारी शह पे फ़लक की तो ठान ली है मगर ये ज़िंदगी की कहीं आख़िरी उड़ान न हो