बख़्शे न गए एक को बख़्शा न कभी रस्ते पे मगर आई ये दुनिया न कभी लाचार ख़ुद अपना ही क़सीदा लिक्खा क़ाबिल कोई मीज़ान पे उतरा न कभी गर्दन भी रेआया की झुकाए रक्खी उठने दिया एहसान का पलड़ा न कभी भरते ही रहे सूद में इक इक धड़कन मंसूख़ किया दर्द का सौदा न कभी अब किस को पता बाम पे चेहरा था कि चाँद कोई सर उठाए हुए गुज़रा न कभी बानू-ए-सबा ख़ाक-नशीं पर भी निगाह नाचीज़ पे करना पड़े तकिया न कभी परछाइयों की जंग थी ख़ूँ का दरिया हम-ज़ाद रजज़-ख़्वाँ हुआ ऐसा न कभी फेंक आओ ख़लाओं में शिकस्ता कश्कोल इस बुर्ज में ठहरेगा सितारा न कभी जब साया भी शीशे की तरह टूट गया दीवार ने देखा ये तमाशा न कभी