बख़्त जागा है तिरे मिस्र के बाज़ारों का सिलसिला बढ़ता ही जाता है ख़रीदारों का तेरे बद-ख़्वाहों का बाक़ी नहीं अब कोई निशाँ नाम लेता है भला कौन जफ़ा-कारों का बज़्म-ए-उश्शाक़ में आना तो जुनूँ ही लाना कि यहाँ काम नहीं कोई भी हुशयारों का संग जितने हैं तजल्ली-गह-ए-सद-तूर हुए क्या मुक़द्दर है तिरे शहर की दीवारों का ग़ौस-ए-आज़म का लक़ब जिस को मिला है 'साबिर' वही सालार है सब क़ाफ़िला-सलारों का