बला की धूप थी सारी फ़ज़ा दहकती रही मगर वफ़ा की कली शाख़ पर चटकती रही बिछड़ते वक़्त में उस को दिलासा देता रहा वो बे-ज़बाँ थी मुझे बेबसी से तकती रही उसे ख़बर थी कि हम अहल-ए-दश्त प्यासे हैं जभी तो मौज किनारों से सर पटकती रही अलम-नसीब तो रो रो के सो गए आख़िर मगर मलूल हुआ रात भर सिसकती रही दम-ए-जुदाई वो मर्यम सलीब की मानिंद मिरे गले से बड़ी देर तक लटकती रही मैं ऐसी राह पे निकला कि मेरी ख़ुश-बख़्ती तमाम उम्र मिरी खोज में भटकती रही