वो भी क्या दिन थे क्या ज़माने थे रोज़ इक ख़्वाब देख लेते थे अब ज़मीं भी जगह नहीं देती हम कभी आसमाँ पे रहते थे आख़िरश ख़ुद तक आन पहुँचे हैं जो तिरी जुस्तुजू में निकले थे ख़्वाब गलियों में फिर रहे थे और लोग अपने घरों में सोए थे हम कहीं दूर थे बहुत ही दूर और तिरे आस-पास बैठे थे