बना के रक्खा है दुनिया ने यर्ग़माल मुझे ख़ुदा-ए-पाक यहाँ से तू अब निकाल मुझे कभी जो भूल के हो जाए सामना अपना चिढ़ाते रहते हैं अपने ही ख़द्द-ओ-ख़ाल मुझे मुझे सँभालने वाला न मिल सका जो कभी तो ख़ुद ही करनी पड़ी अपनी देख-भाल मुझे ये सोच सोच के मैं काट लूँगा हिज्र के दिन कभी तो होगी मयस्सर शब-ए-विसाल मुझे हमेशा जाता है पहले ख़ुद अपने ऐब पे ध्यान दिखाई देता है जब आइने में बाल मुझे अब ऐसे शहर से क्या ज़िंदगी के इम्कानात जहाँ मिले न कोई एक हम-ख़याल मुझे ये सिर्फ़ मेरे बुज़ुर्गों का फ़ैज़ है 'शाहिद' ग़ज़ल में हो गया हासिल जो कुछ कमाल मुझे