बाल-बच्चों के इशारों पे ही जब नाचना है क्या ये सोचें कि कहाँ नाचना कब नाचना है उस से लौ मैं ने लगा ली है तो अब सोचना क्या जिस तरह मुझ को नचाए मिरा रब नाचना है अपनी ही धुन में बसर करने हैं बाक़ी शब-ओ-रोज़ लय पे औरों की न गाना है न अब नाचना है अपना हम-रक़्स बना ही नहीं सकता मैं उसे ज़ेहन में रख के जिसे नाम-ओ-नसब नाचना है घुंघरूओं से ही बुझानी है जिन्हें पेट की आग तोड़ कर उन को तो हर हद्द-ए-अदब नाचना है मैं जहाँ दिन के उजालों में नहीं जा सकता बन के उन गलियों में आवारा-ए-शब नाचना है ऐसी फ़नकारी पे क्या नाज़ करें हम 'शाहिद' ख़ुद सजा कर ही अगर बज़्म-ए-तरब नाचना है