बना के ताज-महल ख़ुद उसे गिराउँगा मोहब्बतों में बग़ावत है क्या दिखाऊँगा क़लम लगा के अदावत के पेड़-पौदों में जो शाख़ सब्र का फल दे वही उगाउँगा उतर चुकी है मिरी रूह में शब-ए-हिज्राँ मैं उस को हिज्र की मनकूहा अब बनाऊँगा ग़मों की आँच पर आँसू उबाल कर अपने मैं अपने ज़ब्त की क़ुव्वत को आज़माऊँगा चला हूँ बाद-ए-मुख़ालिफ़ मैं एक मुद्दत से न छेड़ो मुझ को वगर्ना तुम्हें रुलाउँगा करो न फ़िक्र सितारों की चाल जो भी हो उठा के चाँद चकोरी के पास लाऊँगा लगा के सीने से मैं रास्तों के ये पत्थर ख़िज़ाँ में गीत बहारों के गुनगुनाउँगा मैं तिश्नगी को मिटाने के वास्ते सहरा लबों से तेरे मैं ये आबले लगाऊँगा भँवर के पैरों में हसरत के बाँध कर घुंघरू गर इख़्तियार में होगा तो मैं नचाऊँगा मैं एक मौज-ए-'नसीमी' हूँ बस्तियाँ दिल की सराब-ए-दश्त तिरे सामने बसाऊँगा